भाद्र मास की पंचमी से नंदा देवी का मेला आरंभ होता है। षष्ठी के दिन कदली वृक्षों को पूजन के लिये मंदिर ले जाते हैं। सप्तमी की सुबह इन कदली वृक्षों को नंदा देवी मंदिर ले जाया जाता है। मंदिर में भक्त और स्थानीय कलाकार इन कदली वृक्षों से मां नंदा एवं सुनंदा की प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं। इसके बाद इनमें प्राण प्रतिष्ठा कर विशेष पूजा- अर्चना की जाती है।
प्रतिमाओं को बनाने के लिये कदली वृक्षों को इस बार कौसानी के पास स्थित छानी और ल्वेशाल गांव से नंदा देवी मंदिर परिसर लाया जाएगा। मेले की जगरिए और बैरियों की गायकी भी काफी मशहूर है।
प्रतिमाओं को बनाने के लिये कदली वृक्षों को इस बार कौसानी के पास स्थित छानी और ल्वेशाल गांव से नंदा देवी मंदिर परिसर लाया जाएगा। मेले की जगरिए और बैरियों की गायकी भी काफी मशहूर है।
ये मेला चंद्र वंश के शासन काल से अल्मोड़ा में मनाया जाता रहा है। इसकी शुरुआत राजा बाज बहादुर चंद्र (सन् 1638-78) के शासन काल से हुई थी।
आदिशक्ति नंदादेवी का पवित्र धाम उत्तराखंड को ही माना जाता है। चमोली के घाट ब्लॉक में स्थित कुरड़ गांव को उनका मायका और थराली बलॉक में स्थित देवराडा को उनकी ससुराल.जिस तरह आम पहाड़ी बेटियां हर वर्ष ससुराल जाती हैं, माना जाता है कि उसी संस्कृति का प्रतीक नंदादेवी भी 6 महीने ससुराल औऱ 6 महीने मायके में रहती हैं।
उत्तराखंड के लोग अपनी इष्टदेवी की विशेष पूजा भाद्रपक्ष शुक्ल पक्ष की अष्टमी को करते हैं।
उत्तराखंड में गढ़वाल के पंवार राजाओं की भांति कुमांऊ के चन्द राजाओं की कुलदेवी भी नंदादेवी ही थीं इसलिये दोनों ही मंडलो के लोग नन्दा देवी के उपासक हैं।
उत्तराखंड में गढ़वाल के पंवार राजाओं की भांति कुमांऊ के चन्द राजाओं की कुलदेवी भी नंदादेवी ही थीं इसलिये दोनों ही मंडलो के लोग नन्दा देवी के उपासक हैं।
परंपरा के अनुसार परिवार में अपने ध्याणौं बहनों,बूआ औऱ बेटियों को नन्दादेवी का प्रतीक माना जाता है. हर वर्ष होनेवाली नंदादेवी की इस डोली को छोटी नंदाजात भी कहते हैं और नंदा महा राजजात हर 12 साल में आयोजित होती है.
उत्तराखंड की आराध्य देवी हैं मां नंदा-सुनंदा
अल्मोड़ा। हर वर्ष उत्तरांचल की जनता द्वारा मां सुनंदा की पूजा-अर्चना पूर्ण भक्ति भाव के साथ की जाती है। प्रतिवर्ष भाद्र पद शुक्ल पक्ष आयोजित होने वाली नंदादेवी मेला समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की याद दिलाता है।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मां नंदादेवी का मेला प्रत्येक वर्ष पर्वतीय क्षेत्र में विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है। मां नंदा को पूरे उत्तरांचल में विशेष मान मिला है। वेदों में जिस हिमालय को देवात्मातुल्य माना गया है नंदा उसी की पुत्री है। उत्तराखण्ड में मां नंदा का पूजन सर्वत्र किसी न किसी रूप में किया जाता है। नंदा के पूजन का एक अन्य स्वरूप नंदा की राजजात यात्रा के रूप में प्रत्येक बारह वर्ष में नौटी ग्राम के वेदिनी कुंड से आगे की होम कुंड की पर्वत श्रृंखलाओं में पूजन के साथ संपन्न होता है। जिसमें जन-जन जुड़ता है। यहां उल्लेखनीय है कि नंदा-सुनंदा की पूजा-अर्चना में नंदा जागर का विशेष महत्व है।
नंदा को उत्तरांचल में बड़ी श्रद्धा से पूजने की परंपरा शताब्दियों से है। मां नंदा के मान-सम्मान में उत्तरांचल के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिवर्ष मेलों का आयोजन किया जाता है। यह मेला अल्मोड़ा सहित नैनीताल, कोटमन्या, भवाली, बागेश्वर, रानीखेत, चम्पावत व गढ़वाल क्षेत्र के कई स्थानों में आयोजित होते है। मानसखण्ड में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि मां नंदा के दर्शन मात्र से ही मनुष्य ऐश्वर्य को प्राप्त करता है तथा सुख-शांति का अनुभव करता है। अल्मोड़ा का नंदादेवी मेला प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। पंचमी तिथि को जागर के माध्यम से मां नंदा-सुनंदा का आह्वान किया जाता है। इसी दिन गणेश पूजन कर कार्य के निर्विघ्न संपन्न होने की कामना की जाती है।
षष्टी तिथि को मां नंदा-सुनंदा की मूर्ति निर्माण को कदली वृक्षों को निमंत्रण दिया जाता है। अगले दिन सप्तमी तिथि को इन कदली वृक्षों को प्रात:काल ढोल-नगाड़ों के साथ नंदादेवी मंदिर परिसर में लाया जाता है। बाद में अपराह्न में चंद राजाओं के वंशजों द्वारा इन कदली वृक्षों का पूजन किया जाता है। रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा के बाद में बकरे की भी बली दी जाती है। इसके अगले दिन नंदाष्टमी को दिन में बड़ी संख्या में लोगों द्वारा मां नंदा-सुनंदा की पूजा-अर्चना की जाती है तथा रात्रि में चंद राजाओं के वंशजों द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है। यह पूजा तांत्रिक विधि से होती है। रात्रि को बकरों व भैंसा की बलि भी दी जाती है। अष्टमी को विशेष पूजा-अर्चना के बाद मां नंदा-सुनंदा की मूर्तियों की नगर परिक्रमा कराकर उन्हे जल में विसर्जित किया जाता है।
मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नन्दा की गाथा का गायन करते हैं। मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है। इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नन्दा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं। झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं। कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नन्दादेवी मेला देखना जरुरी है। मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं। वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं।
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